Friday 10 June 2016

नील गायों का संहार

कल दो समाचारों ने ध्यान आकर्षित किया.
एक समाचार था, भारत सरकार की सड़क दुर्घटनाओं को लेकर जारी की गई रिपोर्ट. इस रिपोर्ट के अनुसार देश में हर दिन चार सौ लोग सड़क दुर्घटनाओं में मारे जाते हैं.
दूसरी समाचार था, बिहार में कोई दो सौ नील गायों को पिछले कुछ दिनों में मार दिया गया.
जैसी अपेक्षा था, दूसरा समाचार ही मुख्य पृष्ठों पर अपनी जगह बना पाया, यही समाचार टी वी पर भी चर्चा का विषय बना (इस लेख का शीर्षक भी इसी सोच को ध्यान में रखते हुए मैंने चुना). जिस देश की जनसंख्या एक सौ तीस करोड़ के निकट हो और इस जनसंख्या में हर दिन बयालीस हज़ार से भी अधिक की वृद्धि होती हो वहां एक दिन में चार सौ लोगों का मारा जाना चिंता का विषय कैसे हो सकता है? एक तरह से देखा जाए तो सड़क दुर्घटनाएं इस वृद्धि में थोड़ा अवरोध ही उत्पन्न करती है. यह बात गौण है कि इन दुर्घटनाओं के कारण हर वर्ष हज़ारों परिवार अनाथ हो जाते हैं, उन पर समस्याओं का पहाड़ टूट पड़ता है. घायल व्यक्ति के इलाज में हज़ारों-लाखों रूपए खर्च करने पड़ते हैं. इन दुर्घटनाओं में जो लोग जीवन भर के लिए अपाहिज हो जाते हैं वह अपने लिए और अपने परिवारों के लिए एक गंभीर समस्या बन जाते हैं. पर यह मुद्दे चिंता का विषय नहीं हैं. न मीडिया के लिए, न एनजीओ’स के लिए, न ही आम आदमी के लिए.
नील गायों का संहार अवश्य ही एक चिंता का विषय है, खासकर उन लोगों के लिए जो दिल्ली के सेंट्रल विस्टा एरिया के बंगलों में रहते हैं, (वह अलग बात है कि उस एरिया में एक भी आवारा पशु दिखाई दे जाए तो पूरी व्यवस्था हिल उठती है) या फिर उन एनजीओ’स के लिए जिनकी बैठकें अकसर पांचसितारा होटलों में होती और जिन्हें देश/विदेश से चंदा भी खूब मिलता है. दो मंत्री आपस भिड़ जाएँ तो मीडिया की लाटरी लग जाती है. गरीब किसानों की क्या समस्या है उसकी ओर किसी का ध्यान नहीं जाता. मंत्री क्या कह रहे हैं ओर उसके पीछे क्या राजनीति वह अधिक महत्वपूर्ण हो जाता है.
सत्य तो यह है कि इस देश में न आम आदमी मनुष्य के जीवन का सम्मान करता है, और न ही संस्थायें. सड़क पर कोई घायल हो कर गिर पड़ता है, बीसियों आम आदमी पास से चुपचाप गुज़र जाते हैं, घायल व्यक्ति की सहायता करना तो दूर, उसकी ओर देखते भी नहीं, डॉक्टर पैसों के लिए किडनी का धंधा करता है, नेता संसद की सदस्यता खरीद लेता है, व्योपारी दूध में यूरिया मिला कर बेच देता है, कोई संस्था किसी अनपढ़ व्यक्ति को टापर बना देती है. सुरक्षा एजेंसी का कोई अधिकारी विदेशियों को गुप्त जानाकारी व सूचनाएं बेच देता है.
ऐसे में चिंतन के लिए महत्त्वपूर्ण क्या है तय करना कठिन है.
उपलेख- अगर मेनका गांधी उतनी ही उत्तेजित हैं जितना वह दिखला रहीं थीं तो, कुर्सी का मोह छोड़, पशुओं के लिए कुछ करतीं क्यों नहीं? वैसे इस बात का भी उन्हें सोचना होगा कि कई मायनों में इस देश के करोड़ों लोगों की दशा उन पशुओं से गई-बीती है जिन पशुओं की चिंता उन्हें हर पल सताए रहती है.


No comments:

Post a Comment